<p style="text-align: justify;">पिछले एक साल से पृथ्वी पर गर्मी जिस कदर बढ़ी है, वह अपने आप में अभूतपूर्व है. वैश्विक जलवायु पर नज़र रखने वाली एक प्रमुख संस्था नार्थ ओसनिक एटमोस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार केवल पिछले एक हफ्ते में 1400 से अधिक जगहों पर स्थानीय तापमान में रिकार्ड स्तर की छलांग दर्ज की गयी है. तापमान में बेतहाशा वृद्धि तब दर्ज की जा रही है जब अलनीनो के कमजोर होने की पुष्टि हो चुकी है. अलनीनो बड़े स्तर पर भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में होने वालr गर्म जलवायु की परिस्थितियां हैं जो विश्वभर के मौसम को प्रभावित करती हैं, और पिछले साल वैश्विक स्तर पर आयी गर्मी को पिछले साल के चरम अलनीनो की घटना से जोड़ कर देखा जा रहा था. सनद रहे कि पिछला साल 2023 अब तक का सबसे गर्म साल दर्ज किया गया है, जिसका औसत तापमान पिछले सबसे गर्म साल 2016 से 0.17° सेल्सियस जयादा रहा. पर, अब जब अलनीनो कमजोर पड़ गया है, फिर भी तापमान का लगातार उच्चतम बना रहना जलवायु के किसी जटिल प्रक्रम की ओर इशारा करता है.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>धरती का तापमान बढ़ रहा है</strong></p>
<p style="text-align: justify;">धरती का तापमान पिछले कई हज़ार साल से या यूं कहें आखिरी हिम युग के बाद से जब कृषि का विकास हुआ, छोटे-मोटे बदलाव के साथ लगभग स्थिर बना हुआ है. धरती के तापमान के निर्धारण में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड समेत कई अन्य ग्रीन हाउस गैसों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसकी वायुमंडल में प्राकृतिक रूप में उपस्थिति एक कम्बल का काम करती है, जो धरती से निकली ऊष्मा को वायुमंडल में ही रोक कर धरती को जरूरी स्तर तक गर्म रखते आयी हैं. अगर वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैस ना होते तो पृथ्वी से निकली ऊष्मा ग्रीन हाउस के अभाव में अन्तरिक्ष में चली जाती और पृथ्वी का तापमान ठंढा होकर शून्य से नीचे होता. असल समस्या औद्योगिक क्रांति के लिए जरुरी ईंधन के लिए धरती के नीचे हजारों साल से पड़े कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस का व्यापक रूप से दोहन शुरू हुआ जिसके कारण वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड सहित ग्रीन हाउस गैस जमा होने लगे और परिणामस्वरुप धरती का तापमान बढ़ने लगा, जिसे वैश्विक ऊष्मण या ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं. पर वैश्विक ऊष्मण का विज्ञान इतना सरल है नहीं, इसमें कई स्तर के और कई कड़ियों के उलझे पेंच हैं. जहाँ ग्रीन हाउस गैसों की बढती मात्रा पृथ्वी का तापमान बढ़ा रही है, वहीं औद्योगिक क्रांति के बाद से उपजी कई परिस्थितियाँ पृथ्वी को ठंढा भी कर रही है. यानी मौजूदा पृथ्वी का तापमान उन सारी परिस्थितियों का परिणाम है जो क्रमशः पृथ्वी को गर्म और ठंडा कर रही है.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>जीवाश्म ईंधन के साथ और कारक</strong></p>
<p style="text-align: justify;">1970 के दशक में जीवाश्म ईंधन के बेतहाशा उपयोग के कारण पर ना सिर्फ पृथ्वी के गर्म होने की आशंका जताई गयी बल्कि व्यापक स्तर पर पृथ्वी के ठंढा होने की भी सम्भावना देखी गयी. बीसवीं शताब्दी के मध्य में आयी पृथ्वी के औसत तापमान में बहुत छोटे स्तर के गिरावट को वैश्विक शीतलन का आधार माना गया, जो वास्तव में पश्चिमी देशो में आयी औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैस के साथ-साथ वायु प्रदूषक धूल के कण भी बड़ी मात्रा में जमा होते रहे, जिसे एरोसॉल कहते हैं. धूल, धुआं, जंगल की आग,कारों और कारखानों से निकला प्रदूषण वायुमंडल में एरोसॉल के प्रमुख स्रोत हैं. जीवाश्म ईंधन के जलने से निकली गैसें जैसे सल्फर-डाइ-ऑक्साइड भी वायुमंडल में नमी के कारण सूक्ष्म एरोसॉल में बदल जाती है. जहाँ ग्रीन -हाउस गैस सूर्य की गर्मी को धरती पर निर्बाध आने देती है, और पृथ्वी से निकलने वाली विकिरण को जब्त कर पृथ्वी का तापमान बढ़ा रही थी, वहीं धूलकण सीधे सूर्य के विकिरण को धरती पर आने से पहले ही अन्तरिक्ष में परावर्तित कर पृथ्वी को ठंढा करती हैं. इसके अलावा धूलकण बादल बनने की प्रक्रिया को तेज कर और बादल की प्रवृति बदल कर सूर्य की किरणों को पृथ्वी पर आने से रोक देते हैं. </p>
<p style="text-align: justify;">इस प्रकार औद्योगिक क्रांति के दौरान जीवाश्म ईंधन के जलने से वायुमंडल में बढ़ा प्रदूषण यानी धूलकण से वैश्विक शीतलन की प्रक्रिया वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैस की बढ़ती मात्रा के कारण वैश्विक ऊष्मणकी प्रक्रिया भी साथ-साथ चलती रही. यानी औद्योगिक क्रांति के कारण ना सिर्फ पृथ्वी धीरे-धीरे गर्म होती रही बल्कि साथ साथ ठंढी भी होती रही, जिसमें पृथ्वी को गर्म करने वाली ग्रीन हाउस गैसों का प्रभाव, पृथ्वी को ठंढा करने वाली एरोसॉल के मुकाबले ज्यादा प्रभावी रहा,और पृथ्वी धीरे-धीरे गर्म होती रही. </p>
<p style="text-align: justify;"><strong>कई समुद्री इलाके असामान्य</strong></p>
<p style="text-align: justify;"> एक नए शोध में जानकारी सामने आयी है कि वैश्विक स्तर पर वायु प्रदूषण नियंत्रण के कारण कई समुद्री क्षेत्र असामान्य रूप से गर्म हो रहे हैं. इसी कड़ी में चीन में इस सदी के पहले दशक के बाद बड़े पैमाने पर औद्योगिक और शहरी वायु प्रदूषण पर लगाम लगाई गयी जिसका सीधा सम्बन्ध साल 2013 से उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी प्रशांत समुद्र का रहस्यमय रूप से गर्म होने से पाया गया है जो रुक-रुक के पिछले साल तक गर्म होता रहा. क्लाइमेट मॉडल के अनुसार अस्सी के दशक से चीन में आये औद्योगिक विस्तार से निकले एरोसॉल प्रशांत महासागर पर एक छतरी का काम करती रही, जो सूर्य की ऊष्मा के कुछ हिस्से को परावर्तित कर समुद्र को ठंडा रखा. चीन के वायु प्रदूषण नियंत्रण, जिसमें लगभग 70% तक की कमी आयी, के कारण एरोसॉल की छतरी छिन्न पड़ गयी और प्रशांत सागर का का तटीय क्षेत्र गर्म होने लगा. ऐसा नहीं कि केवल प्रशांत महासागर का पश्चिमी तट ही असमान्य रूप से गर्म हो रहा है, उत्तरी अटलांटिक महासागर में भी हीट वेब का दौर पिछली गर्मी के बाद देखा गया है, जिसके नतीजे में मछली पकड़ने के लिए मछुआरों को सुदूर उत्तर में आर्कटिक सागर तक का रुख करना पड़ा. प्रदूषण से निकले वायुमंडल में मानव जनित एरोसॉल ग्लोबल वार्मिंग के दौर में ग्लोबल कुलिंग का कम करता है, यह अपने आप में विरोधाभासी लगता है पर एक शोध के मुताबिक वायुमण्डल में मौजूद मानव जनित धूल-कण लगभग एक-तिहाई तक वैश्विक ऊष्मण के प्रभाव को कम करता है.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>यूरोप है तकनीक में आगे</strong></p>
<p style="text-align: justify;">पिछले दशक में वायु प्रदूषण नियंत्रण का जो प्रकल्प चीन में शुरू हुआ वैसा ही 80 के दशक आते-आते उत्तरी अमेरिका और यूरोप में सफल हो चुका था, वहां वायु प्रदूषण पर कुछ हद तक रोक लग चुकी थी. इसका प्रभाव वैश्विक ऊष्मण के वार्षिक आंकड़ों में भी दिखता है, यानी अस्सी के दशक के साथ ही जब यूरोप और अमेरिका के आकाश काफी हद तक एरोसॉल से मुक्त हो चुके थे तब वैश्विक ऊष्मण का एक नया और प्रभावी दौर शुरू होता है. एक नया शोध वायुमंडल में मौजूद एरोसॉल और तापमान के सम्बन्ध को और प्रभावी रूप से रेखांकित करता है, जिसके अनुसार व्यापारिक समुद्री जहाज पर सख्त उत्सर्जन मानदंड के लागू होने से समुद्री तापमान में तुरंत ही बढ़ोतरी दर्ज की जाने लगी. साल 2020 में इंटरनेशनल मेरीटाइम आर्गेनाइजेशन ने वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए उपयोग में लाये जाने वाले ईंधन में सल्फर की मात्रा को 80% कम निर्धारित कर दिया. परिणामस्वरुप अचानक से सल्फर एरोसॉल में कमी आयी जिससे प्रति वर्ग मीटर समुद्र तक पहुंचने वाली उर्जा में 0.1-0.3 वाट की वृद्धि दर्ज की गयी और ऐसा अनुमान है कि अगले सात साल में समुद्री सतह के तापमान में 0.16° सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी.</p>
<p style="text-align: justify;">जहां एरोसॉल में आयी कमी का सीधा प्रभाव समुद्र के बढ़ते तापमान पर दीखता है वहीं मानवीय कारणों से वायुमंडल में अचानक एरोसॉल की मात्रा बढ़ने का असर भी पृथ्वी को मिलने वाले ऊष्मा में भी दीखता है. साल 2019 में पृथ्वी को मिलने वाली प्रति वर्ग मीटर ऊष्मा 2.72 वाट थी जो बढ़ते ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा के चलते साल 2022 में बढ़कर 2.91 वाट हो गयी जिसमें पिछले साल (2023) 0.12 वाट की गिरावट देखी गयी. पृथ्वी को मिलने वाली ऊष्मा में गिरावट स्पष्ट रूप से साल 2023 में कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के जंगलों में व्यापक स्तर पर लगी आग से निकले धुंए के कारण सूर्य की उर्जा का एक हिस्सा परावर्तित होकर वापस अंतरिक्ष में चला गया और पृथ्वी तक कम ऊष्मा पहुंच सकी. </p>
<p style="text-align: justify;"><strong>है विरोधाभासी, पर एरोसॉल काम का भी</strong></p>
<p style="text-align: justify;">वायुमंडल में एरोसॉल कभी एक जगह व्यवस्थित नहीं होता बल्कि हवा के साथ-साथ घूमता रहता है, जिसके नतीजे में धरती और समुद्र अलग-अलग समय में अलग-अलग स्तर तक गर्म होते हैं. खासकर वाष्पीकरण की तेज गति के कारण समुद्र के ऊपर एरोसॉल का वितरण तेजी से बदलते रहता है. समुद्र में इस बेतरतीब ऊष्मण के कारण जलवायु के चक्र में बड़े और छोटे दोनों स्तर के असंतुलन संभव है और ऐसा पाया गया है कि उत्तरी प्रशांत सागर में 2013 से लगातार गर्मी की स्थिति के मूल में पूर्वी चीन में पिछले दशक आयी एरोसॉल की कमी है, जिससे बेरिंग सागर से मध्य अमेरिका तक के प्रशांत सागर तक गर्म हो उठा. औद्योगिक क्रांति के साथ जीवाश्म ईंधन की खपत बढ़ी जिससे धरती को गर्म करने वाला कार्बन-डाइ -ऑक्साइड निकला, साथ ही साथ वातावरण को ठंढा करने वाला एरोसॉल भी. यहां तक जानकारी जुटाई गयी कि समुद्री यातायात से निकले ग्रीन हाउस गैस से जितना तापमान बढ़ा उससे ज्यादा उससे निकले प्रदूषण ने पृथ्वी को ठंडा किया. साल 2021 में आयी आपीसीसी की एस्सेस्मेंट रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक क्रांति के बाद से वायुमंडल में जमा हुई ग्रीन हाउस गैसों के कारण जहां पृथ्वी का औसत तापमान 1.5° सेल्सियस तक बढ़ गया है, वहीं जीवाश्म ईंधन के जलने से निकला धुंआ धरती के तापमान को 0.4° सेल्सियस तक कम कर चुका है.</p>
<p style="text-align: justify;">अब तक पृथ्वी का औसत तापमान प्रभावी रूप से 1.1° सेल्सियस तक बढ़ गया है. यानी कि जीवाश्म ईंधन के जलने से प्रर्याप्त प्रदूषण ना निकलता तो पृथ्वी अब तक पेरिस जलवायु समझौते द्वारा निर्धारित 1.5° सेल्सियस के खतरनाक स्तर तक गर्म हो चुकी होती. वायु प्रदूषण के मानव स्वास्थ पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण वैश्विक स्तर पर मानव जनित एरोसॉल के उत्सर्जन को कम किया जा रहा है, इस कारण पृथ्वी के औसत तापमान में अचानक से वृद्धि का दौर आ गया है. वैश्विक ऊष्मण के जिम्मेदार कार्बन-डाइ-ऑक्साइड और हवा में बढ़ता धूलकण यानि एयरोसोल दोनों के स्रोत जीवाश्म ईंधन ही है पर दोनों आपस में उलझे हुए है, दोनों के प्रभाव एक दूसरे के उलट है. जहाँ एक पृथ्वी को गर्म कर रहा है वहीं इसके उलट दूसरा पृथ्वी को ठंडा कर रहा है. हाल के कुछ वर्षो में ईंधन की प्रकृति को बिना बदले सल्फर की मात्रा को कम करके और उचित तकनीक का उपयोग करके वायु प्रदूषण पर लगाम तो लग गयी है पर ग्रीन हाउस उत्सर्जन ज्यो का त्यों जारी है,जो वैश्विक ऊष्मण को और गति दे रहा है. ऐसे में जरुरत है कि ना सिर्फ वायु प्रदूषण को कम किया जाये परन्तु जीवाश्म ईंधन का हरित विकल्प तलाशा जाये, तभी वायु प्रदूषण और वैश्विक ऊष्मण के इस उलझन को सुलझाया जा सकता हैं. </p>
<p style="text-align: justify;"><strong>[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]</strong></p>